प्रकृति के नियम – एक अमोघ न्याय
भीख मांगो, चोरी करो या उधार लो, रिश्वत दो या धोखा दो, कैसे भी करके धन कमाओ और खुशी मनाओ। अथवा कम से कम जीवित रहो।
किसी भी हालत में आगे बढ़ने की इस अन्दाधुन्द होड़ में, क्या हम यह सोचने के लिए ठहरते हैं, कि कदाचित हम अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराए जाएंगे? यदि शास्त्रों में वर्णित नरकयातनाएं सच होंगी तो हमारा क्या होगा? ‘प्रकृति के नियम’ में, श्रील प्रभुपाद, जो बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े तत्त्वज्ञानियों में से एक हैं, हमें बताते हैं कि, पाप क्या है ओर कौनसे दुष्कर्म के लिए किसे क्या दण्ड भुगतना पड़ता है। इसका निष्कर्ष अटल है अधिकतर लोग उस भविष्य की ओर जा रहे हैं, जो बहुत सुखद नहीं है।
यह कोई मजाक की बात नहीं। कदाचित आपको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए, और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, पता लगाना चाहिए कि, क्या करना चाहिए।
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